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मंगलवार, 14 जनवरी 2014

virasat : dhruv Gupta


ध्रुव गुप्ता
पिछली रात एक बहुत पुराने संस्कृत ग्रंथ से गुज़रते हुए कई विलक्षण अनुभूतियां हुईं। ग्रंथ में संग्रहित किसी प्राचीन कवि की एक कविता ने बेहद बेचैन किया। कवि स्वयं अज्ञात है, लेकिन कविता की गहन संवेदना, व्यथा और बारीकी शिद्दत से महसूस होती है। उस अज्ञात विरही कवि की मूल कविता और अपना अनुवाद मित्रों से सांझा कर रहा हूं। शायद कवि का वह दर्द आप भी महसूस कर सकें ! -

पिछली रात एक बहुत पुराने संस्कृत ग्रंथ से गुज़रते हुए कई विलक्षण अनुभूतियां हुईं। ग्रंथ में संग्रहित किसी प्राचीन कवि की एक कविता ने बेहद बेचैन किया। कवि स्वयं अज्ञात है, लेकिन कविता की गहन संवेदना, व्यथा और बारीकी शिद्दत से महसूस होती है। उस अज्ञात विरही कवि की मूल कविता और अपना अनुवाद मित्रों से सांझा कर रहा हूं। शायद कवि का वह दर्द आप भी महसूस कर सकें !  - 'सुप्ते ग्रामे नदति जलदे शान्तसंतापरम्यं।पांथेनात्मव्यसनकरूनोद्स्त्रू गीतं निशीथे। स्फी तोत्कंठापरिगतधिया प्रोषितस्त्रीजनेन।ध्यानावेस्तिमितन नयनं श्रूयते रूद्यते च।  
ग्रामेस्मिन पथिकाय पांथ वसतिनैवाधुना दीयते। पश्यात्रेव विहारमंडपतले पान्थः प्रसुप्तो युवा।तेनोद्रीय खलेन गर्जति घने स्मृत्वा प्रियां तत्कृतं। येनाद्यपि करग्कदंडपतनाशंकी जनस्तिष्ठति।' 

सो गया था गांव
गरजने लगी थीं घटायें
फ़िर थमा गर्जन और अब
झमाझम बरसने लगा है पानी
कितना शांत और मनोरम है समय
ऐसे में जाने कौन बटोही
गा रहा है अपनी वेदना
उत्कंठा से घिर आई हैं
गांव की विरह की मारी स्त्रियां
सुन रही हैं और गहरे उतर रही हैं
ध्यान में
स्तब्ध हैं उनके नयन
शायद रो रही हैं वे निःशब्द

हे पथिक, अब इस गांव में
किसी बटोही को नहीं देंती हम
टिकने का ठिकाना
देखो उस विहार मंडप को
रात जब गरजने लगे थे बादल
उसके नीचे सोए 
एक दुष्ट युवक बटोही ने
अपनी प्रिया के स्मरण में 
गीत गाकर जाने क्या जादू किया 
कि आशंकित हैं अब तक हम
प्राण जाने के भय से !

'सुप्ते ग्रामे नदति जलदे शान्तसंतापरम्यं।
पांथेनात्मव्यसनकरूनोद्स्त्रू गीतं निशीथे।
स्फी तोत्कंठापरिगतधिया प्रोषितस्त्रीजनेन।
ध्यानावेस्तिमितन नयनं श्रूयते रूद्यते च।
ग्रामेस्मिन पथिकाय पांथ वसतिनैवाधुना दीयते। 

पश्यात्रेव विहारमंडपतले पान्थः प्रसुप्तो युवा।
तेनोद्रीय खलेन गर्जति घने स्मृत्वा प्रियां तत्कृतं। 
येनाद्यपि करग्कदंडपतनाशंकी जनस्तिष्ठति।'

भावानुवाद:

सो गया था गांव
गरजने लगी थीं घटायें
फ़िर थमा गर्जन और अब
झमाझम बरसने लगा है पानी
कितना शांत और मनोरम है समय
ऐसे में जाने कौन बटोही
गा रहा है अपनी वेदना
उत्कंठा से घिर आई हैं
गांव की विरह की मारी स्त्रियां
सुन रही हैं और गहरे उतर रही हैं
ध्यान में
स्तब्ध हैं उनके नयन
शायद रो रही हैं वे निःशब्द

हे पथिक, अब इस गांव में
किसी बटोही को नहीं देंती हम
टिकने का ठिकाना
देखो उस विहार मंडप को
रात जब गरजने लगे थे बादल
उसके नीचे सोए
एक दुष्ट युवक बटोही ने
अपनी प्रिया के स्मरण में
गीत गाकर जाने क्या जादू किया
कि आशंकित हैं अब तक हम
प्राण जाने के भय से !

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