कृति चर्चा:
मरुभूमि के लोकजीवन की जीवंत गाथा "खम्मा"
चर्चाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति
विवरण: खम्मा, उपन्यास, अशोक जमनानी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द,
पृष्ठ १३७, मूल्य ३०० रु., श्री रंग प्रकाशन होशंगाबाद]
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राजस्थान की मरुभूमि से सन्नाटे को चीरकर दिगंत तक लोकजीवन की अनुभूतियों
को अपने हृदवेधी स्वरों से पहुँचाते माँगणियारों के संघर्ष, लुप्त होती
विरासत को बचाये रखने की जिजीविषा, छले जाने के बाद भी न छलने का जीवट
जैसे जीवनमूल्यों पर केंद्रित "खम्मा" युवा तथा चर्चित उपन्यासकार अशोक
जमनानी की पाँचवी कृति है. को अहम्, बूढ़ी डायरी, व्यासगादी तथा छपाक से
हिंदी साहत्य जगत में परिचित ही नहीं प्रतिष्ठित भी हो चुके अशोक जमनानी
खम्मा में माँगणियार बींझा के आत्म सम्मान, कलाप्रेम, अनगढ़ प्रतिभा, भटकाव,
कलाकारों के पारस्परिक लगाव-सहयोग, तथाकथित सभ्य पर्यटकों द्वारा शोषण,
पारिवारिक ताने-बाने और जमीन के प्रति समर्पण की सनातनता को शब्दांकित कर
सके हैं.
"जो कलाकार की बनी लुगाई, उसने पूरी उम्र अकेले बिताई" जैसे संवाद के
माध्यम से कथा-प्रवाह को संकेतित करता उपन्यासकार ढोला-मारू की धरती में
अन्तर्व्याप्त कमायचे और खड़ताल के मंद्र सप्तकी स्वरों के साथ 'घणी खम्मा
हुकुम' की परंपरा के आगे सर झुकाने से इंकार कर सर उठाकर जीने की ललक
पालनेवाले कथानायक बींझा की तड़प का साक्षी बनता-बनाता है.
अकथ कहानी प्रेम की, किणसूं कही न जाय
गूंगा को सुपना भया, सुमर-सुमर पछताय
मोहब्बत की अकथ कहानी को शब्दों में पिरोते अशोक, राहुल सांकृत्यायन और विजय दान देथा के पाठकों गाम्भीर्य और गहनता की दुनिया से गति और विस्तार के आयाम में ले जाते हैं. उपन्यास के कथासूत्र में काव्य पंक्तियाँ गेंदे के हार में गुलाब पुष्पों की तरह गूँथी गयी हैं.
बेकलू (विकल रेत) की तरह अपने वज़ूद की वज़ह तलाशता बींझा अपने मित्र सूरज और अपनी संघर्षरत सुरंगी का सहारा पाकर अपने मधुर गायन से पर्यटकों को रिझाकर आजीविका कमाने की राह पर चल पड़ता है. पर्यटकों के साथ धन के सामानांतर उन्मुक्त अमर्यादित जीवनमूल्यों के तूफ़ान (क्रिस्टीना के मोहपाश में) बींझा का फँसना, क्रिस्टीना का अपने पति-बच्चों के पास लौटना, भींजा की पत्नी सोरठ द्वारा कुछ न कहेजाने पर भी बींझा की भटकन को जान जाना और उसे अनदेखा करते हुए भी क्षमा न कर कहना " आपने इन दिनों मुझे मारा नहीं पर घाव देते रहे… अब मेरी रूह सूख गयी है… आप कुछ भी कहो लेकिन मैं आपको माफ़ नहीं कर पा रही हूँ… क्यों माफ़ करूँ आपको?' यह स्वर नगरीय स्त्री विमर्श की मरीचिका से दूर ग्रामीण भारत के उस नारी का है जो अपने परिवार की धुरी है. इस सचेत नारी को पति द्वारा पीटेजाने पर भी उसके प्यार की अनुभूति होती है, उसे शिकायत तब होती है जब पति उसकी अनदेखी कर अन्य स्त्री के बाहुपाश में जाता है. तब भी वह अपने कर्तव्य की अनदेखी नहीं करती और गृहस्वामिनी बनी रहकर अंततः पति को अपने निकट आने के लिये विवश कर पाती है.
उपन्यास के घटनाक्रम में परिवेशानुसार राजस्थानी शब्दों, मुहावरों, उद्धरणों और काव्यांशों का बखूबी प्रयोग कथावस्तु को रोचकता ही नहीं पूर्णता भी प्रदान करता है किन्तु बींझा-सोरठ संवादों की शैली, लहजा और शब्द देशज न होकर शहरी होना खटकता है. सम्भवतः ऐसा पाठकों की सुविधा हेतु किया गया हो किन्तु इससे प्रसंगों की जीवंतता और स्वाभाविकता प्रभावित हुई है.
कथांत में सुखांती चलचित्र की तरह हुकुम का अपनी साली से विवाह, उनके बेटे सुरह का प्रेमिका प्राची की मृत्यु को भुलाकर प्रतीची से जुड़ना और बींझा को विदेश यात्रा का सुयोग पा जाना 'शो मस्त गो ऑन' या 'जीवन चलने का नाम' की उक्ति अनुसार तो ठीक है किन्तु पारम्परिक भारतीय जीवन मूल्यों के विपरीत है. विवाहयोग्य पुत्र के विवाह के पूर्व हुकुम द्वारा साली से विवाह अस्वाभाविक प्रतीत होता है.
सारतः, कथावस्तु, शिल्प, भाषा, शैली, कहन और चरित्र-चित्रण के निकष पर अशोक जमनानी की यह कृति पाठक को बाँधती है. राजस्थानी परिवेश और संस्कृति से अनभिज्ञ पाठक के लिये यह कृति औत्सुक्य का द्वार खोलती है तो जानकार के लिये स्मृतियों का दरीचा.... यह उपन्यास पाठक में अशोक के अगले उपन्यास की प्रतीक्षा करने का भाव भी जगाता है.
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