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सोमवार, 27 जून 2022

सलिल २७ जून

वृहदारण्यक उपनिषद
(शुक्ल यजुर्वेद, काण्वी शाखा)
*
शांतिपाठ
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

ॐ पूर्ण है वह; पूर्ण है यह, पूर्ण से उत्पन्न पूर्ण।
पूर्ण में से पूर्ण को यदि निकालें, पूर्ण तब भी शेष रहता।।

प्रथम अध्याय 
प्रथम ब्राह्मण : यज्ञाश्व 
ॐ उषा सर यज्ञ-अश्व का, सूर्य नेत्र है, वायु प्राण है। 
खुला हुआ मुख अग्नि देव है, संवत्सर यज्ञाश्व-आत्मा।।
पीठ द्युलोक; उदर नभ मंडल, पदस्थान भू; दिशा पार्श्व हैं। 
दिशा अवांतर पसली उसकी, ऋतुएँ अंग; महीना संधि।।
दिवस-रात पद, नखत अस्थियाँ, मेघ मांस; बालू ऊवध्य है।
नाड़ी नदी; यकृत पर्वत है, ह्रदय औषधि, रोम वनस्पति।।
धड़ रवि उदयित, अधड़ अस्त रवि, तड़ित जम्हाई, सिर-गति गर्जन।
वर्षा मूत्र; वाक् हिनहिन ध्वनि, अश्व-रूप में यज्ञ सुकल्पित।१। 
दिन प्रकटा बन महिमा सम्मुख, पूर्व समुद्र योनि है उसकी। 
पीछे रात्रि प्रकट महिमावत, पश्चिम सिंधु योनि है उसकी।।
ये दोनों ही आगे-पीछे, महिमा संज्ञक ग्रह हैं हय के। 
हय-सुर; बाजी गंधर्वों को, अर्वा-असुर; अश्व मनुजों को
वहन करे; है सिंधु बंधु अरु, सागर ही उद्गम है इसका।२।    
ऊवध्य = अनपचा अन्न।
*
द्वितीय ब्राह्मण : प्रलय पश्चात् सृष्टि उत्पत्ति 
पहले यहाँ नहीं था कुछ भी, मृत्यु-प्रलय से, सब आवृत्त था। 
ढँका क्षुधा से, क्षुधा मृत्यु है, आत्मा होऊँ, ठान लिया यह।।
पूज-आचरण कर जल पाया, जान अर्क-अर्कत्व सुखी हो। १।
स्थूल भाग एकत्र जलार्की, पृथ्वी होकर आप थक गया। 
थके-तपे तन प्रजापति के, से प्रकटा तेजाग्नि सारवत्।२। 
तीन भाग हो, एक-एक दे, सूर्य-हवा को, प्राण त्रिभागी। 
पूर्व शीश; दो विदिशा भुजवत, पश्चिम पूँछ; जाँघ विदिशाएँ।।
उत्तर-दक्षिण पार्श्व भाग हैं, पृष्ठ द्युलोक; उदर नभमंडल। 
पृथ्वी ह्रदय; प्रजापति जल में, जो जाने; सर्वत्र प्रतिष्ठित।३।
काम्य अन्य तन हुआ; मृत्यु ने मनस त्रिवेद मिथुन को ध्याया। 
उससे बीज हुआ संवत्सर, रहा गर्भ में प्रजापति के।
'भाण' वाक् कर मुख फैलाया, मारूँ; अन्न मिलेगा थोड़ा।।
सोचा, मन-वाणी से उसने, ऋक यजु साम छंद रच डाले। 
यज्ञ प्रजा पशु की रचना की, जिसको रचा उसीको खाया।।
वह उपजाता-खाता सबको, यही अदिति का अदितित्व है। 
जो जाने इस अदितित्व को, भोक्ता वह; सब भोग्य उसे हो।४-५। 
करी कामना; यज्ञ करूँ; हो भ्रमित; किया तप मृत्यु देव ने। 
थके-तपे उस मृत्युदेव का, निकला यश अरु वीर्य; प्राण यह।  
निकले प्राण फूलता है तन, मन रहता तब भी शरीर में।६।
करी कामना 'मेध्य' देह हो, देहवान मैं इससे होऊँ। 
मेध्य देह अश्व सम फूली, यही अश्वमेधत्व जानिए।। 
जो जाने अवरोधरहित हो, करता चिंतन प्रजापति का। 
देव प्रजापति इसी भाव से, पशुओं को सुर तक पहुँचाए।।
सूर्य तपे जो अश्वमेध वह, संवत्सर तन; अग्नि अर्क है।
उसके हैं ये लोक-आत्मा, अग्नि-सूर्य अर्काश्वमेध हैं।।
मत्युरूप वे एक देवता, जो जाने ले जीत मृत्यु को। 
मृत्यु न मारे; आप आत्म हो, वह देवों में एक देव हो।७।
२७-६-२०२२ 

****

मात्रिक लौकिक जातीय
वर्णिक प्रतिष्ठा जातीय
महामाया छंद
सूत्र - य ला।
*
सुनो मैया
पड़ूँ पैंया
बजा वीणा
हरो पीड़ा
महामाया
करो छैंया
तुम्हीं दाता
जगत्त्राता
उबारो माँ
थमा बैंया
मनाऊँ मैं
कहो कैसे
नहीं जानूँ
उठा कैंया
तुम्हारा था
तुम्हारा हूँ
न डूबे माँ
बचा नैया
भुलाओ ना
बुलाओ माँ
तुम्हें ही मैं
भजूँ मैया
२७-६-२०२०
***
दोहे बूँदाबाँदी के
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
***
27.6.2018
घनाक्षरी:
वर्णिक छंद, चतुष्पदी, हर पद- ३१ वर्ण, सोलह चरण- हर पद के प्रथम ३ चरण ८ वर्ण, अंतिम ४ चरण ७ वर्ण.


लाख़ मतभेद रहें, पर मनभेद न हों, भाई को हमेशा गले, हँस के लगाइए|
लात मार दूर करें, दशमुख सा अनुज, शत्रुओं को न्योत घर, कभी भी न लाइए|
भाई नहीं दुश्मन जो, इंच भर भूमि न दें, नारि-अपमान कर, नाश न बुलाइए|
छल-छद्म, दाँव-पेंच, दन्द-फंद अपना के, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये||
*
जिसका जो जोड़ीदार, करे उसे वही प्यार, कभी फूल कभी खार, मन-मन भाया है|
पास आये सुख मिले, दूर जाये दुःख मिले, साथ रहे पूर्ण करे, जिया हरषाया है|
चाह-वाह-आह-दाह, नेह नदिया अथाह, कल-कल हो प्रवाह, डूबा-उतराया है|
गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद - कर - जोड़, देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है||
(श्रृंगार तथा हास्य रस का मिश्रण)
*
शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर, जल्दी से हल्दी लेकर, करी मनुहार है|
आकुल हैं-व्याकुल हैं, दोनों एक-दूजे बिन, नया-नया प्रेम रंग, शीश पे सवार है|
चन्द्रमुखी, सूर्यमुखी, ज्वालामुखी रूप धरे, सासू की समधन पे, जग बलिहार है|
गेंद जैसा या है ढोल, बन्ना तो है अनमोल, बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||
*
ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं, जग है असार पर, सार बिन चले ना|
मायका सभी को लगे - भला, किन्तु ये है सच, काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना|
मनुहार इनकार, इकरार इज़हार, भुजहार, अभिसार, प्यार बिन चले ना|
रागी हो, विरागी हो या हतभागी बड़भागी, दुनिया में काम कभी, 'नार' बिन चले ना||
(श्लेष अलंकार वाली अंतिम पंक्ति में 'नार' शब्द के तीन अर्थ ज्ञान, पानी और स्त्री लिये गये हैं.)
*
बुन्देली
जाके कर बीना सजे, बाके दर सीस नवे, मन के विकार मिटे, नित गुनगाइए|
ज्ञान, बुधि, भासा, भाव, तन्नक न हो अभाव, बिनत रहे सुभाव, गुननसराहिए|
किसी से नाता लें जोड़, कब्बो जाएँ नहीं तोड़, फालतू न करें होड़, नेह सोंनिबाहिए|
हाथन तिरंगा थाम, करें सदा राम-राम, 'सलिल' से हों न वाम, देस-वारीजाइए||
छत्तीसगढ़ी
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीनाबहावथे|
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानीभावथे|
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरीइठलावथे|
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारीभावथे||
निमाड़ी
गधा का माथा का सिंग, जसो नेता गुम हुयो, गाँव खs बटोsर वोsट,उल्लूs की दुम हुयो|
मनखs को सुभाsव छे, नहीं सहे अभाव छे, हमेसs खांव-खांव छे, आपsसे तुम हुयो|
टीला पाणी झाड़s नद्दी, हाय खोद रएs पिद्दी, भ्रष्टs सरsकारs रद्दी, पतानामालुम हुयो|
'सलिल' आँसू वादsला, धsरा कहे खाद ला, मिहsनतs का स्वाद पा, दूरsमाsतम हुयो||
मालवी:
दोहा:
भणि ले म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम|
जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम||
कवित्त
शरद की चांदणी से, रात सिनगार करे, बिजुरी गिरे धरा पे, फूल नभ सेझरे|
आधी राती भाँग बाटी, दिया की बुझाई बाती, मिसरी-बरफ़ घोल्यो,नैना हैं भरे-भरे|
भाभीनी जेठानी रंगे, काकीनी मामीनी भीजें, सासू-जाया नहीं आया,दिल धीर न धरे|
रंग घोल्यो हौद भर, बैठी हूँ गुलाल धर, राह में रोके हैं यार, हाय! टारे नटरे||
राजस्थानी
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलं-ठेला, मोड़तरां-तरां का|
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का|
चाल्यो बीज बजारा रे?, आवारा बनजारा रे?, फिरता मारा-मारा रे?,होड़ तरां-तरां का||
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़तरां-तरां का||
हिन्दी+उर्दू
दर्दे-दिल पीरो-गम, किसी को दिखाएँ मत, दिल में छिपाए रखें, हँस-मुस्कुराइए|
हुस्न के न ऐब देखें, देखें भी तो नहीं लेखें, दिल पे लुटा के दिल, वारी-वारी जाइए|
नाज़ो-अदा नाज़नीं के, देख परेशान न हों, आशिकी की रस्म है कि, सिरभी मुड़ाइए|
चलिए न ऐसी चाल, फालतू मचे बवाल, कोई न करें सवाल, नखरेउठाइए||
भोजपुरी
चमचम चमकल, चाँदनी सी झलकल, झपटल लपकल, नयन कटरिया|
तड़पल फड़कल, धक्-धक् धड़कल, दिल से जुड़ल दिल, गिरलबिजुरिया|
निरखल परखल, रुक-रुक चल-चल, सम्हल-सम्हल पग, धरलगुजरिया|
छिन-छिन पल-पल, पड़त नहीं रे कल, मचल-मचल चल, चपलसंवरिया||
***
मैथिली हाइकु
स्नेह करब
हमर मंत्र अछि
गले लगबै
*

***
लघुकथा
दुहरा चेहरा
*
- 'क्या कहूँ बहनजी, सच बोला नहीं जाता और झूठ कहना अच्छा नहीं लगता इसीलिये कहीं आना-जाना छोड़ दिया. आपके साथ तो हर २-४ दिन में गपशप होती रही है, और कुछ हो न हो मन का गुबार तो निकल जाता था. अब उस पर भी आपत्ति है.'
= 'आपत्ति? किसे?, आपको गलतफहमी हुई है. मेरे घर में किसी को आपत्ति नहीं है. आप जब चाहें पधारिये और निस्संकोच अपने मन की बात कर सकती हैं. ये रहें तो भी हम लोगों की बातों में न तो पड़ते हैं, न ध्यान देते हैं.'
- 'आपत्ति आपके नहीं मेरे घर में होती है. वह भी इनको या बेटे को नहीं बहूरानी को होती है.'
= 'क्यों उन्हें हमारे बीच में पड़ने की क्या जरूरत? वे तो आज तक कभी आई नहीं.'
-'आएगी भी नहीं. रोज बना-बनाया खाना चाहिए और सज-धज के निकल पड़ती है नेतागिरी के लिए. कहती है तुम जैसी स्त्रियाँ घर का सब काम सम्हालकर पुरुषों को सर पर चढ़ाती हैं. मुझे ही घर सम्हालना पड़ता है. सोचा था बहू आयेगी तो बुढ़ापा आराम से कटेगा लेकिन महारानी तो घर का काम करने को बेइज्जती समझती हैं. तुम्हारे चाचाजी बीमार रहते हैं, उनकी देख-भाल, समय पर दवाई और पथ्य, बेटे और पोते-पोती को ऑफिस और स्कूल जाने के पहले खाना और दोपहर का डब्बा देना. अब शरीर चलता नहीं. थक जाती हूँ.'
='आपकी उअमर नहीं है घर-भर का काम करने की. आप और चाचाजी आराम करें और घर की जिम्मेदारी बहु को सम्हालने दें. उन्हें जैसा ठीक लगे करें. आप टोंका-टाकी भर न करें. सबका काम करने का तरीका अलग-अलग होता है.'
-'तो रोकता कौन है? करें न अपने तरीके से. पिछले साल मैं भांजे की शादी में गयी थी तो तुम्हारे चाचाजी को समय पर खाना-चाय कुछ नहीं मिला. बाज़ार का खाकर तबियत बिगाड़ ली. मुश्किल से कुछ सम्हली है. मैंने कहा ध्यान रखना था तो बेटे से नमक-मिर्च लगाकर चुगली कर दी और सूटकेस उठाकर मायके जाने को तैयार ही गयी. बेटे ने कहा तो कुछ नहीं पर उसका उतरा हुआ मुँह देखकर मैं समझ गई, उस दिन से रसोई में घुसती ही नहीं. मुझे सुना कर अपनी सहेली से कह रही थी अब कुछ कहा तो बुड्ढे-बुढ़िया दोनों को थाने भिजवा दूँगी. दोनों टाइम नाश्ते-खाने के अलावा घर से कोई मतलब नहीं.'
पड़ोस में रहनेवाली मुँहबोली चाची को सहानुभूति जता, शांत किया और चाय-नाश्ता कराकर बिदा किया. घर में आयी तो चलभाष पर ऊँची आवाज में बात कर रही उनकी बहू की आवाज़ सुनायी पड़ी- ' माँ! तुम काम मत किया करो, भाभी से कराओ. उसका फर्ज है तुम्हारी सेवा करे....'
मैं विस्मित थी स्त्री हितों की दुहाई देनेवाली शख्सियत का दुहरा चेहरा देखकर.
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संपर्क- ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com***
मुक्तक
*
प्राण, पूजा कर रहा निष्प्राण की
इबादत कर कामना है त्राण की
वंदना की, प्रार्थना की उम्र भर-
अर्चना लेकिन न की संप्राण की
.
साधना की साध्य लेकिन दूर था
भावना बिन रूप ज्यों बेनूर था
कामना की यह मिले तो वह करूँ
जाप सुनता प्रभु न लेकिन सूर था
.
नाम ले सौदा किया बेनाम से
पाठ-पूजन भी कराया दाम से
याद जब भी किया उसको तो 'सलिल'
हो सुबह या शाम केवल काम से
.
इबादत में तू शिकायत कर रहा
इनायत में वह किफायत कर रहा
छिपाता तू सच, न उससे कुछ छिपा-
तू खुदी से खुद अदावत कर रहा
.
तुझे शिकवा वह न तेरी सुन रहा
है शिकायत उसे तू कुछ गुन रहा
है छिपाता ख्वाब जो तू बुन रहा-
हाय! माटी में लगा तू घुन रहा
.
तोड़ मंदिर, मन में ले मन्दिर बना
चीख मत, चुप रह अजानें सुन-सुना
छोड़ दे मठ, भूल गुरु-घंटाल भी
ध्यान उसका कर, न तू मौके भुना
.
बन्दा परवर वह, न तू बन्दा मगर
लग गरीबों के गले, कस ले कमर
कर्मफल देता सभी को वह सदा-
काम कर ऐसा दुआ में हो असर
***
दोहा सलिला
*
जिसे बसाया छाँव में, छीन रहा वह ठाँव
आश्रय मिले न शहर में, शरण न देता गाँव
*
जो पैरों पर खड़े हैं, 'सलिल' उन्हीं की खैर
पैर फिसलते ही बनें, बंधु-मित्र भी गैर
*
सपने देखे तो नहीं, तुमने किया गुनाह
किये नहीं साकार सो, जीवन लगता भार
*
दाम लागने की कला, सीख किया व्यापार
नेह किया नीलाम जब, साँस हुई दुश्वार
*
माटी में मिल गए हैं, बड़े-बड़े रणवीर
किन्तु समझ पाए नहीं, वे माटी की पीर
*
नाम रख रहे आज वे, बुला-मनाकर पर्व
नाम रख रहे देख जन, अहं प्रदर्शन गर्व
*
हैं पत्थर के सनम भी, पानी-पानी आज
पानी शेष न आँख में, देख आ रही लाज
२७-६-२०१७
***
गीत :
*
चारु चन्द्र राकेश रत्न की
किरण पड़े जब 'सलिल' धार पर
श्री प्रकाश पा जलतरंग सी
अनजाने कुछ रच-कह देती
कलकल-कुहूकुहू की वीणा
विजय-कुम्भ रस-लय-भावों सँग
कमल कुसुम नीरजा शरण जा
नेह नर्मदा नैया खेती
आ अमिताभ सूर्य ऊषा ले
विहँस खलिश को गले लगाकर
कंठ धार लेता महेश बन
हो निर्भीक सुरेन्द्र जगजयी
सीताराम बने सब सुख-दुःख
धीरज धर घनश्याम बरसकर
पाप-ताप की नाव डुबा दें
महिमा गाकर सद्भावों की
दें संतोष अचल गौतम यदि
हो आनंद-सिंधु यह जीवन
कविता प्रणव नाद हो पाये
हो संजीव सृष्टि सब तब ही.
२७-६-२०१५
***

लघुकथा, मुक्तक, गीत, दोहा,घनाक्षरी,वृहदारण्यक उपनिषद१



वृहदारण्यक उपनिषद
(शुक्ल यजुर्वेद, काण्वी शाखा)
*
शांतिपाठ
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

ॐ पूर्ण है वह; पूर्ण है यह, पूर्ण से उत्पन्न पूर्ण।
पूर्ण में से पूर्ण को यदि निकालें, पूर्ण तब भी शेष रहता।।

प्रथम अध्याय 
प्रथम ब्राह्मण : यज्ञाश्व 
ॐ उषा सर यज्ञ-अश्व का, सूर्य नेत्र है, वायु प्राण है। 
खुला हुआ मुख अग्नि देव है, संवत्सर यज्ञाश्व-आत्मा।।
पीठ द्युलोक; उदर नभ मंडल, पदस्थान भू; दिशा पार्श्व हैं। 
दिशा अवांतर पसली उसकी, ऋतुएँ अंग; महीना संधि।।
दिवस-रात पद, नखत अस्थियाँ, मेघ मांस; बालू ऊवध्य है।
नाड़ी नदी; यकृत पर्वत है, ह्रदय औषधि, रोम वनस्पति।।
धड़ रवि उदयित, अधड़ अस्त रवि, तड़ित जम्हाई, सिर-गति गर्जन।
वर्षा मूत्र; वाक् हिनहिन ध्वनि, अश्व-रूप में यज्ञ सुकल्पित।१। 
दिन प्रकटा बन महिमा सम्मुख, पूर्व समुद्र योनि है उसकी। 
पीछे रात्रि प्रकट महिमावत, पश्चिम सिंधु योनि है उसकी।।
ये दोनों ही आगे-पीछे, महिमा संज्ञक ग्रह हैं हय के। 
हय-सुर; बाजी गंधर्वों को, अर्वा-असुर; अश्व मनुजों को
वहन करे; है सिंधु बंधु अरु, सागर ही उद्गम है इसका।२।    
ऊवध्य = अनपचा अन्न।
*
द्वितीय ब्राह्मण : प्रलय पश्चात् सृष्टि उत्पत्ति 
पहले यहाँ नहीं था कुछ भी, मृत्यु-प्रलय से, सब आवृत्त था। 
ढँका क्षुधा से, क्षुधा मृत्यु है, आत्मा होऊँ, ठान लिया यह।।
पूज-आचरण कर जल पाया, जान अर्क-अर्कत्व सुखी हो। १।
स्थूल भाग एकत्र जलार्की, पृथ्वी होकर आप थक गया। 
थके-तपे तन प्रजापति के, से प्रकटा तेजाग्नि सारवत्।२। 
तीन भाग हो, एक-एक दे, सूर्य-हवा को, प्राण त्रिभागी। 
पूर्व शीश; दो विदिशा भुजवत, पश्चिम पूँछ; जाँघ विदिशाएँ।।
उत्तर-दक्षिण पार्श्व भाग हैं, पृष्ठ द्युलोक; उदर नभमंडल। 
पृथ्वी ह्रदय; प्रजापति जल में, जो जाने; सर्वत्र प्रतिष्ठित।३।
काम्य अन्य तन हुआ; मृत्यु ने मनस त्रिवेद मिथुन को ध्याया। 
उससे बीज हुआ संवत्सर, रहा गर्भ में प्रजापति के।
'भाण' वाक् कर मुख फैलाया, मारूँ; अन्न मिलेगा थोड़ा।।
सोचा, मन-वाणी से उसने, ऋक यजु साम छंद रच डाले। 
यज्ञ प्रजा पशु की रचना की, जिसको रचा उसीको खाया।।
वह उपजाता-खाता सबको, यही अदिति का अदितित्व है। 
जो जाने इस अदितित्व को, भोक्ता वह; सब भोग्य उसे हो।४-५। 
करी कामना; यज्ञ करूँ; हो भ्रमित; किया तप मृत्यु देव ने। 
थके-तपे उस मृत्युदेव का, निकला यश अरु वीर्य; प्राण यह।  
निकले प्राण फूलता है तन, मन रहता तब भी शरीर में।६।
करी कामना 'मेध्य' देह हो, देहवान मैं इससे होऊँ। 
मेध्य देह अश्व सम फूली, यही अश्वमेधत्व जानिए।। 
जो जाने अवरोधरहित हो, करता चिंतन प्रजापति का। 
देव प्रजापति इसी भाव से, पशुओं को सुर तक पहुँचाए।।
सूर्य तपे जो अश्वमेध वह, संवत्सर तन; अग्नि अर्क है।
उसके हैं ये लोक-आत्मा, अग्नि-सूर्य अर्काश्वमेध हैं।।
मत्युरूप वे एक देवता, जो जाने ले जीत मृत्यु को। 
मृत्यु न मारे; आप आत्म हो, वह देवों में एक देव हो।७।
२७-६-२०२२ 

****

मात्रिक लौकिक जातीय
वर्णिक प्रतिष्ठा जातीय
महामाया छंद
सूत्र - य ला।
*
सुनो मैया
पड़ूँ पैंया
बजा वीणा
हरो पीड़ा
महामाया
करो छैंया
तुम्हीं दाता
जगत्त्राता
उबारो माँ
थमा बैंया
मनाऊँ मैं
कहो कैसे
नहीं जानूँ
उठा कैंया
तुम्हारा था
तुम्हारा हूँ
न डूबे माँ
बचा नैया
भुलाओ ना
बुलाओ माँ
तुम्हें ही मैं
भजूँ मैया
२७-६-२०२०
***
दोहे बूँदाबाँदी के
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
***
27.6.2018
घनाक्षरी:
वर्णिक छंद, चतुष्पदी, हर पद- ३१ वर्ण, सोलह चरण- हर पद के प्रथम ३ चरण ८ वर्ण, अंतिम ४ चरण ७ वर्ण.


लाख़ मतभेद रहें, पर मनभेद न हों, भाई को हमेशा गले, हँस के लगाइए|
लात मार दूर करें, दशमुख सा अनुज, शत्रुओं को न्योत घर, कभी भी न लाइए|
भाई नहीं दुश्मन जो, इंच भर भूमि न दें, नारि-अपमान कर, नाश न बुलाइए|
छल-छद्म, दाँव-पेंच, दन्द-फंद अपना के, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये||
*
जिसका जो जोड़ीदार, करे उसे वही प्यार, कभी फूल कभी खार, मन-मन भाया है|
पास आये सुख मिले, दूर जाये दुःख मिले, साथ रहे पूर्ण करे, जिया हरषाया है|
चाह-वाह-आह-दाह, नेह नदिया अथाह, कल-कल हो प्रवाह, डूबा-उतराया है|
गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद - कर - जोड़, देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है||
(श्रृंगार तथा हास्य रस का मिश्रण)
*
शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर, जल्दी से हल्दी लेकर, करी मनुहार है|
आकुल हैं-व्याकुल हैं, दोनों एक-दूजे बिन, नया-नया प्रेम रंग, शीश पे सवार है|
चन्द्रमुखी, सूर्यमुखी, ज्वालामुखी रूप धरे, सासू की समधन पे, जग बलिहार है|
गेंद जैसा या है ढोल, बन्ना तो है अनमोल, बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||
*
ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं, जग है असार पर, सार बिन चले ना|
मायका सभी को लगे - भला, किन्तु ये है सच, काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना|
मनुहार इनकार, इकरार इज़हार, भुजहार, अभिसार, प्यार बिन चले ना|
रागी हो, विरागी हो या हतभागी बड़भागी, दुनिया में काम कभी, 'नार' बिन चले ना||
(श्लेष अलंकार वाली अंतिम पंक्ति में 'नार' शब्द के तीन अर्थ ज्ञान, पानी और स्त्री लिये गये हैं.)
*
बुन्देली
जाके कर बीना सजे, बाके दर सीस नवे, मन के विकार मिटे, नित गुनगाइए|
ज्ञान, बुधि, भासा, भाव, तन्नक न हो अभाव, बिनत रहे सुभाव, गुननसराहिए|
किसी से नाता लें जोड़, कब्बो जाएँ नहीं तोड़, फालतू न करें होड़, नेह सोंनिबाहिए|
हाथन तिरंगा थाम, करें सदा राम-राम, 'सलिल' से हों न वाम, देस-वारीजाइए||
छत्तीसगढ़ी
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीनाबहावथे|
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानीभावथे|
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरीइठलावथे|
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारीभावथे||
निमाड़ी
गधा का माथा का सिंग, जसो नेता गुम हुयो, गाँव खs बटोsर वोsट,उल्लूs की दुम हुयो|
मनखs को सुभाsव छे, नहीं सहे अभाव छे, हमेसs खांव-खांव छे, आपsसे तुम हुयो|
टीला पाणी झाड़s नद्दी, हाय खोद रएs पिद्दी, भ्रष्टs सरsकारs रद्दी, पतानामालुम हुयो|
'सलिल' आँसू वादsला, धsरा कहे खाद ला, मिहsनतs का स्वाद पा, दूरsमाsतम हुयो||
मालवी:
दोहा:
भणि ले म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम|
जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम||
कवित्त
शरद की चांदणी से, रात सिनगार करे, बिजुरी गिरे धरा पे, फूल नभ सेझरे|
आधी राती भाँग बाटी, दिया की बुझाई बाती, मिसरी-बरफ़ घोल्यो,नैना हैं भरे-भरे|
भाभीनी जेठानी रंगे, काकीनी मामीनी भीजें, सासू-जाया नहीं आया,दिल धीर न धरे|
रंग घोल्यो हौद भर, बैठी हूँ गुलाल धर, राह में रोके हैं यार, हाय! टारे नटरे||
राजस्थानी
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलं-ठेला, मोड़तरां-तरां का|
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का|
चाल्यो बीज बजारा रे?, आवारा बनजारा रे?, फिरता मारा-मारा रे?,होड़ तरां-तरां का||
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़तरां-तरां का||
हिन्दी+उर्दू
दर्दे-दिल पीरो-गम, किसी को दिखाएँ मत, दिल में छिपाए रखें, हँस-मुस्कुराइए|
हुस्न के न ऐब देखें, देखें भी तो नहीं लेखें, दिल पे लुटा के दिल, वारी-वारी जाइए|
नाज़ो-अदा नाज़नीं के, देख परेशान न हों, आशिकी की रस्म है कि, सिरभी मुड़ाइए|
चलिए न ऐसी चाल, फालतू मचे बवाल, कोई न करें सवाल, नखरेउठाइए||
भोजपुरी
चमचम चमकल, चाँदनी सी झलकल, झपटल लपकल, नयन कटरिया|
तड़पल फड़कल, धक्-धक् धड़कल, दिल से जुड़ल दिल, गिरलबिजुरिया|
निरखल परखल, रुक-रुक चल-चल, सम्हल-सम्हल पग, धरलगुजरिया|
छिन-छिन पल-पल, पड़त नहीं रे कल, मचल-मचल चल, चपलसंवरिया||
***
मैथिली हाइकु
स्नेह करब
हमर मंत्र अछि
गले लगबै
*

***
लघुकथा
दुहरा चेहरा
*
- 'क्या कहूँ बहनजी, सच बोला नहीं जाता और झूठ कहना अच्छा नहीं लगता इसीलिये कहीं आना-जाना छोड़ दिया. आपके साथ तो हर २-४ दिन में गपशप होती रही है, और कुछ हो न हो मन का गुबार तो निकल जाता था. अब उस पर भी आपत्ति है.'
= 'आपत्ति? किसे?, आपको गलतफहमी हुई है. मेरे घर में किसी को आपत्ति नहीं है. आप जब चाहें पधारिये और निस्संकोच अपने मन की बात कर सकती हैं. ये रहें तो भी हम लोगों की बातों में न तो पड़ते हैं, न ध्यान देते हैं.'
- 'आपत्ति आपके नहीं मेरे घर में होती है. वह भी इनको या बेटे को नहीं बहूरानी को होती है.'
= 'क्यों उन्हें हमारे बीच में पड़ने की क्या जरूरत? वे तो आज तक कभी आई नहीं.'
-'आएगी भी नहीं. रोज बना-बनाया खाना चाहिए और सज-धज के निकल पड़ती है नेतागिरी के लिए. कहती है तुम जैसी स्त्रियाँ घर का सब काम सम्हालकर पुरुषों को सर पर चढ़ाती हैं. मुझे ही घर सम्हालना पड़ता है. सोचा था बहू आयेगी तो बुढ़ापा आराम से कटेगा लेकिन महारानी तो घर का काम करने को बेइज्जती समझती हैं. तुम्हारे चाचाजी बीमार रहते हैं, उनकी देख-भाल, समय पर दवाई और पथ्य, बेटे और पोते-पोती को ऑफिस और स्कूल जाने के पहले खाना और दोपहर का डब्बा देना. अब शरीर चलता नहीं. थक जाती हूँ.'
='आपकी उअमर नहीं है घर-भर का काम करने की. आप और चाचाजी आराम करें और घर की जिम्मेदारी बहु को सम्हालने दें. उन्हें जैसा ठीक लगे करें. आप टोंका-टाकी भर न करें. सबका काम करने का तरीका अलग-अलग होता है.'
-'तो रोकता कौन है? करें न अपने तरीके से. पिछले साल मैं भांजे की शादी में गयी थी तो तुम्हारे चाचाजी को समय पर खाना-चाय कुछ नहीं मिला. बाज़ार का खाकर तबियत बिगाड़ ली. मुश्किल से कुछ सम्हली है. मैंने कहा ध्यान रखना था तो बेटे से नमक-मिर्च लगाकर चुगली कर दी और सूटकेस उठाकर मायके जाने को तैयार ही गयी. बेटे ने कहा तो कुछ नहीं पर उसका उतरा हुआ मुँह देखकर मैं समझ गई, उस दिन से रसोई में घुसती ही नहीं. मुझे सुना कर अपनी सहेली से कह रही थी अब कुछ कहा तो बुड्ढे-बुढ़िया दोनों को थाने भिजवा दूँगी. दोनों टाइम नाश्ते-खाने के अलावा घर से कोई मतलब नहीं.'
पड़ोस में रहनेवाली मुँहबोली चाची को सहानुभूति जता, शांत किया और चाय-नाश्ता कराकर बिदा किया. घर में आयी तो चलभाष पर ऊँची आवाज में बात कर रही उनकी बहू की आवाज़ सुनायी पड़ी- ' माँ! तुम काम मत किया करो, भाभी से कराओ. उसका फर्ज है तुम्हारी सेवा करे....'
मैं विस्मित थी स्त्री हितों की दुहाई देनेवाली शख्सियत का दुहरा चेहरा देखकर.
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संपर्क- ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com***
मुक्तक
*
प्राण, पूजा कर रहा निष्प्राण की
इबादत कर कामना है त्राण की
वंदना की, प्रार्थना की उम्र भर-
अर्चना लेकिन न की संप्राण की
.
साधना की साध्य लेकिन दूर था
भावना बिन रूप ज्यों बेनूर था
कामना की यह मिले तो वह करूँ
जाप सुनता प्रभु न लेकिन सूर था
.
नाम ले सौदा किया बेनाम से
पाठ-पूजन भी कराया दाम से
याद जब भी किया उसको तो 'सलिल'
हो सुबह या शाम केवल काम से
.
इबादत में तू शिकायत कर रहा
इनायत में वह किफायत कर रहा
छिपाता तू सच, न उससे कुछ छिपा-
तू खुदी से खुद अदावत कर रहा
.
तुझे शिकवा वह न तेरी सुन रहा
है शिकायत उसे तू कुछ गुन रहा
है छिपाता ख्वाब जो तू बुन रहा-
हाय! माटी में लगा तू घुन रहा
.
तोड़ मंदिर, मन में ले मन्दिर बना
चीख मत, चुप रह अजानें सुन-सुना
छोड़ दे मठ, भूल गुरु-घंटाल भी
ध्यान उसका कर, न तू मौके भुना
.
बन्दा परवर वह, न तू बन्दा मगर
लग गरीबों के गले, कस ले कमर
कर्मफल देता सभी को वह सदा-
काम कर ऐसा दुआ में हो असर
***
दोहा सलिला
*
जिसे बसाया छाँव में, छीन रहा वह ठाँव
आश्रय मिले न शहर में, शरण न देता गाँव
*
जो पैरों पर खड़े हैं, 'सलिल' उन्हीं की खैर
पैर फिसलते ही बनें, बंधु-मित्र भी गैर
*
सपने देखे तो नहीं, तुमने किया गुनाह
किये नहीं साकार सो, जीवन लगता भार
*
दाम लागने की कला, सीख किया व्यापार
नेह किया नीलाम जब, साँस हुई दुश्वार
*
माटी में मिल गए हैं, बड़े-बड़े रणवीर
किन्तु समझ पाए नहीं, वे माटी की पीर
*
नाम रख रहे आज वे, बुला-मनाकर पर्व
नाम रख रहे देख जन, अहं प्रदर्शन गर्व
*
हैं पत्थर के सनम भी, पानी-पानी आज
पानी शेष न आँख में, देख आ रही लाज
२७-६-२०१७
***
गीत :
*
चारु चन्द्र राकेश रत्न की
किरण पड़े जब 'सलिल' धार पर
श्री प्रकाश पा जलतरंग सी
अनजाने कुछ रच-कह देती
कलकल-कुहूकुहू की वीणा
विजय-कुम्भ रस-लय-भावों सँग
कमल कुसुम नीरजा शरण जा
नेह नर्मदा नैया खेती
आ अमिताभ सूर्य ऊषा ले
विहँस खलिश को गले लगाकर
कंठ धार लेता महेश बन
हो निर्भीक सुरेन्द्र जगजयी
सीताराम बने सब सुख-दुःख
धीरज धर घनश्याम बरसकर
पाप-ताप की नाव डुबा दें
महिमा गाकर सद्भावों की
दें संतोष अचल गौतम यदि
हो आनंद-सिंधु यह जीवन
कविता प्रणव नाद हो पाये
हो संजीव सृष्टि सब तब ही.
२७-६-२०१५
***

रविवार, 26 जून 2022

सत्यमित्रानंद सवैया,छंद शुद्धध्वनि, छंद आल्हा

अभिनव प्रयोग

नवान्वेषित सवैया
सत्यमित्रानंद सवैया
*
विधान -
गणसूत्र - य न त त र त र भ ल ग।
पदभार - १२२ १११ २२१ २२१ २१२ २२१ २१२ २११ १२ ।
यति - ७-६-६-७ ।
*
गए हो तुम नहीं, हो दिलों में बसे, गई है देह ही, रहोगे तुम सदा।
तुम्हीं से मिल रही, है हमें प्रेरणा, रहेंगे मोह से, हमेशा हम जुदा।
तजेंगे हम नहीं, जो लिया काम है, करेंगे नित्य ही, न चाहें फल कभी।
पुराने वसन को, है दिया त्याग तो, नया ले वस्त्र आ, मिलेंगे फिर यहीं।
*
तुम्हारा यश सदा, रौशनी दे हमें, रहेगा सूर्य सा, घटेगी यश नहीं।
दिये सा तुम जले, दी सदा रौशनी, बँधाई आस भी, न रोका पग कभी।
रहे भारत सदा, ही तुम्हारा ऋणी, तुम्हीं ने दी दिशा, तुम्हीं हो सत्व्रती।
कहेगा युग कथा, ये सन्यासी रहे, हमेशा कर्म के, विधाता खुद जयी।
*
मिला जो पद तजा, जा नई लीक पे, लिखी निर्माण की, नयी ही पटकथा।
बना मंदिर नया, दे दिया तीर्थ है, नया जिसे कहें, सभी गौरव कथा।
महामानव तुम्हीं, प्रेरणास्रोत हो, हमें उजास दो, गढ़ें किस्मत नयी।
खड़े हैं सुर सभी, देवतालोक में, प्रशस्ति गा रहे, करें स्वागत सभी।
*
२६-६-२०१९
छंद सलिला:
शुद्ध ध्वनि छंद
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १८-८-८-६, पदांत गुरु
लक्षण छंद:
लाक्षणिक छंद है / शुद्धध्वनि पद / अंत करे गुरु / यश भी दे
यति रहे अठारह / आठ आठ छह, / विरुद गाइए / साहस ले
चौकल में जगण न / है वर्जित- करि/ए प्रयोग जब / मन चाहे
कह-सुन वक्ता-श्रो/ता हर्षित, सम / शब्द-गंग-रस / अवगाहे
उदाहरण:
१. बज उठे नगाड़े / गज चिंघाड़े / अंबर फाड़े / भोर हुआ
खुर पटकें घोड़े / बरबस दौड़े / संयम छोड़े / शोर हुआ
गरजे सेनानी / बल अभिमानी / मातु भवानी / जय रेवा
ले धनुष-बाण सज / बड़ा देव भज / सैनिक बोले / जय देवा
कर तिलक भाल पर / चूड़ी खनकीं / अँखियाँ छलकीं / वचन लिया
'सिर अरि का लेना / अपना देना / लजे न माँ का / दूध पिया'
''सौं मातु नरमदा / काली मैया / यवन मुंड की / माल चढ़ा
लोहू सें भर दौं / खप्पर तोरा / पिये जोगनी / शौर्य बढ़ा''
सज सैन्य चल पडी / शोधकर घड़ी / भेरी-घंटे / शंख बजे
दिल कँपे मुगल के / धड़-धड़ धड़के / टँगिया सम्मुख / प्राण तजे
गोटा जमाल था / घुला ताल में / पानी पी अति/सार हुआ
पेड़ों पर टँगे / धनुर्धारी मा/रें जीवन दु/श्वार हुआ
वीरनारायण अ/धार सिंह ने / मुगलों को दी / धूल चटा
रानी के घातक / वारों से था / मुग़ल सैन्य का / मान घटा
रूमी, कैथा भो/ज, बखीला, पं/डित मान मुबा/रक खां लें
डाकित, अर्जुनबै/स, शम्स, जगदे/व, महारख सँग / अरि-जानें
पर्वत से पत्थर / लुढ़काये कित/ने हो घायल / कुचल मरे-
था नत मस्तक लख / रण विक्रम, जय / स्वप्न टूटते / हुए लगे
बम बम भोले, जय / शिव शंकर, हर / हर नरमदा ल/गा नारा
ले जान हथेली / पर गोंडों ने / मुगलों को बढ़/-चढ़ मारा
आसफ खां हक्का / बक्का, छक्का / छूटा याद हु/ई मक्का
सैनिक चिल्लाते / हाय हाय अब / मरना है बिल/कुल पक्का
हो गयी साँझ निज / हार जान रण / छोड़ शिविर में / जान बचा
छिप गया: तोपखा/ना बुलवा, हो / सुबह चले फिर / दाँव नया
रानी बोलीं "हम/ला कर सारी / रात शत्रु को / पीटेंगे
सरदार न माने / रात करें आ/राम, सुबह रण / जीतेंगे
बस यहीं हो गयी / चूक बदनसिंह / ने शराब थी / पिलवाई
गद्दार भेदिया / देश द्रोह कर / रहा न किन्तु श/रम आई
सेनानी अलसा / जगे देर से / दुश्मन तोपों / ने घेरा
रानी ने बाजी / उलट देख सो/चा वन-पर्वत / हो डेरा
बारहा गाँव से / आगे बढ़कर / पार करें न/र्रइ नाला
नागा पर्वत पर / मुग़ल न लड़ पा/येंगे गोंड़ ब/नें ज्वाला
सब भेद बताकर / आसफ खां को / बदनसिंह था / हर्षाया
दुर्भाग्य घटाएँ / काली बनकर / आसमान पर / था छाया
डोभी समीप तट / बंध तोड़ मुग/लों ने पानी / दिया बहा
विधि का विधान पा/नी बरसा, कर / सकें पार सं/भव न रहा
हाथी-घोड़ों ने / निज सैनिक कुच/ले, घबरा रण / छोड़ दिया
मुगलों ने तोपों / से गोले बर/सा गोंडों को / घेर लिया
सैनिक घबराये / पर रानी सर/दारों सँग लड़/कर पीछे
कोशिश में थीं पल/टें बाजी, गिरि / पर चढ़ सकें, स/मर जीतें
रानी के शौर्य-पराक्रम ने दुश्मन का दिल दहलाया था
जा निकट बदन ने / रानी पर छिप / घातक तीर च/लाया था
तत्क्षण रानी ने / खींच तीर फें/का, जाना मु/श्किल बचना
नारायण रूमी / भोज बच्छ को / चौरा भेज, चु/ना मरना
बोलीं अधार से / 'वार करो, लो / प्राण, न दुश्मन / छू पाये'
चाहें अधार लें / उन्हें बचा, तब / तक थे शत्रु नि/कट आये
रानी ने भोंक कृ/पाण कहा: 'चौरा जाओ' फिर प्राण तजा
लड़ दूल्हा-बग्घ श/हीद हुए, सर/मन रानी को / देख गिरा
भौंचक आसफखाँ / शीश झुका, जय / पाकर भी थी / हार मिली
जनमाता दुर्गा/वती अमर, घर/-घर में पुजतीं / ज्यों देवी
पढ़ शौर्य कथा अब / भी जनगण, रा/नी को पूजा / करता है
जनहितकारी शा/सन खातिर नित / याद उन्हें ही / करता है
बारहा गाँव में / रानी सरमन /बग्घ दूल्ह के / कूर बना
ले कंकर एक र/खे हर जन, चुप / वीर जनों को / शीश नवा
हैं गाँव-गाँव में / रानी की प्रति/माएँ, हैं ता/लाब बने
शालाओं को भी , नाम मिला, उन/का- देखें ब/च्चे सपने
नव भारत की नि/र्माण प्रेरणा / बनी आज भी / हैं रानी
रानी दुर्गावति / हुईं अमर, जन / गण पूजे कह / कल्याणी
नर्मदासुता, चं/देल-गोंड की / कीर्ति अमर, दे/वी मैया
जय-जय गाएंगे / सदियों तक कवि/, पाकर कीर्ति क/था-छैंया
*********
टिप्पणी: २४ जून १५६४ रानी दुर्गावती शहादत दिवस, कूर = समाधि,
दूरदर्शन पर दिखाई जा रही अकबर की छद्म महानता की पोल रानी की संघर्ष कथा खोलती है.
***
छंद सलिला:
आल्हा/वीर/मात्रिक सवैया छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति , अर्ध सम मात्रिक छंद, प्रति चरण मात्रा ३१ मात्रा, यति १६ -१५, पदांत गुरु गुरु, विषम पद की सोलहवी मात्रा गुरु (ऽ) तथा सम पद की पंद्रहवीं मात्रा लघु (।),
लक्षण छंद:
आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य.
गुरु-लघु चरण अंत में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य..
अलंकार अतिशयता करता बना राई को 'सलिल' पहाड़.
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़..
उदाहरण:
१. बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'
*
तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..
अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..
फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..
२६-६-२०१४






***
हाइकु गीत:
आँख का पानी
*
आँख का पानी,
मर गया तो कैसे
धरा हो धानी?...
*
तोड़ बंधन
आँख का पानी बहा.
रोके न रुका.
आसमान भी
हौसलों की ऊँचाई
के आगे झुका.
कहती नानी
सूखने मत देना
आँख का पानी....
*
रोक न पाये
जनक जैसे ज्ञानी
आँसू अपने.
मिट्टी में मिला
रावण जैसा ध्यानी
टूटे सपने.
आँख से पानी
न बहे, पर रहे
आँख का पानी...
*
पल में मरे
हजारों बेनुगाह
गैस में घिरे.
गुनहगार
हैं नेता-अधिकारी
झूठे-मक्कार.
आँख में पानी
देखकर रो पड़ा
आँख का पानी...
२६-६-२०१०
***

सोमवार, 20 जून 2022

सलिल २० जून

 सदोका सलिला 

ई​ कविता में
करते काव्य स्नान ​
कवि​-कवयित्रियाँ।
सार्थक​ होता
जन्म निरख कर
दिव्य भाव छवियाँ।१।
ममता मिले
मन-कुसुम खिले,
सदोका-बगिया में।
क्षण में दिखी
छवि सस्मित मिली
कवि की डलिया में।२।
​न​ नौ नगद ​
न​ तेरह उधार,
लोन ले, हो फरार।
मस्तियाँ कर
किसी से मत डर
जिंदगी है बहार।३।
धूप बिखरी
कनकाभित छवि
वसुंधरा निखरी।
पंछी चहके
हुलस, न बहके
सुनयना सँवरी।४।
 ​
श्लोक गुंजित
मन भाव विभोर,
पुजा माखनचोर।
उठा हर्षित
सक्रिय हो नीरव 
क्यों हो रहा शोर?५।
है चौकीदार
वफादार लेकिन
चोरियाँ होती रही।
लुटती रहीं
देश की तिजोरियाँ
जनता रोती रही।६।
गुलाबी हाथ
मृणाल अंगुलियाँ
कमल सा चेहरा।
गुलाब थामे
चम्पा सा बदन
सुंदरी या बगिया?७।
लिए उच्चार
पाँच, सात औ' सात
दो मर्तबा सदोका।
रूप सौंदर्य
क्षणिक, सदा रहे
प्रभाव सद्गुणों का।८।
सूरज बाँका
दीवाना है उषा का
मुट्ठी भर गुलाल
कपोलों पर
लगाया, मुस्कुराया
शोख उषा शर्माई।९।
आवारा मेघ
कर रहा था पीछा
देख अकेला दौड़ा
हाथ न आई
दामिनी ने गिराई
जमकर बिजली।१०।
हवलदार
पवन ने जैसे ही
फटकार लगाई।
बादल हुआ
झट नौ दो ग्यारह
धूप खिलखिलाई।११।
महकी कली
गुनगुनाते गीत
मँडराए भँवरे।
सगे किसके
आशिक हरजाई
बेईमान ठहरे।१२।
घर ना घाट
सन्यासी सा पलाश
ध्यानमग्न, एकाकी।
ध्यान भग्न
करना चाहे संध्या
दिखला अदा बाँकी।१३।
सतत बही
जो जलधार वह
सदा निर्मल रही।
ठहर गया
जो वह मैला हुआ
रहो चलते सदा।१४।
पंकज खिला
करता नहीं गिला
जन्म पंक में मिला।
पुरुषार्थ से
विश्व-वंद्य हुआ
देवों के सिर चढ़ा।१५।
खिलखिलाई 
इठलाई शर्माई 
सद्यस्नाता नवोढ़ा। 
चिलमन भी 
रूप देख बौराया 
दर्पण आहें भरे।१६। 
• 
लहराती है 
नागिन जैसी लट, 
भाल-गाल चूमती। 
बेला की गंध 
मदिर सूँघ-सूँघ 
बेड़नी सी नाचती।१७।
• 
क्षितिज पर 
मेघ घुमड़ आए 
वसुंधरा हर्षाई। 
पवन झूम 
बिजली संग नाचा, 
प्रणय पत्र बाँचा।१८। 
• 
लोकतंत्र में 
नेता करे सो न्याय 
अफसर का राज। 
गौरैयों ने 
राम का राज्य चाहा 
बाजों को चुन लिया।१९। 
• 
घर को लगी 
घर के चिराग से 
दिन दहाड़े आग। 
मंत्री का पूत 
किसानों को कुचले 
और छाती फुलाए। २०।
मेघ गरजे 
रिमझिम बरसे 
आसमान भी तर। 
धरती भीगी 
हवा में हवा हुआ 
दुपट्टा, गाल लाल ।२१। 
• 
निर्मल नीर 
गगन से भू पर 
आकर मैला हुआ। 
ज्यों कलियों का 
दामन भँवरों ने 
छूकर पंकिल किया।२२। 
• 
चुभ रही थी 
गर्मी में तीखी धूप 
जीव-जंतु परेशां। 
धरा झुलसी 
धन्य धरा धीरज  
बारिश आने तक।२३। 
• 
करते पहुनाई 
ढोल बजा दादुर 
पत्ते बजाते ताली। 
सौंधी महक 
माटी ने फैला दी 
झूम उठीं शाखाएँ।२४। 
• 
मेघ ठाकुर 
आसमानी ड्योढी में 
जमाए महफिल। 
दिखाए नृत्य 
कमर लचकाती 
बिजली बलखाती।२५। 
विमर्श
निर्बल नागरिकों के अधिकारों का हनन
लोकतंत्र में निर्बल नागरिकों की जीवन रक्षा का भर जिन पर है वे उसका जीना मुश्किल कर दें और जब कोई असामाजिक तत्व ऐसी स्थिति में उग्र हो जाए तो पूरे देश में हड़ताल कर असंख्य बेगुनाहों को मरने के लिए विवश कर दिया जाए।
शर्म आनी चाहिए कि बिना इलाज मरे मरीजों के कत्ल का मुकदमा आई एम् ए के
पदाधिकारियों पर क्यों नहीं चलाती सरकार?
आम मरीजोंजीवन रक्षा के लिए कोर्ट में जनहित याचिका क्यों नहीं लाई जाती ?
मरीजों के मरने के बाद भी जो अस्पताल इलाज के नाम पर लाखों का बिल बनाते हैं,
और लाश तक रोक लेते हैं उनके खिलाफ क्यों नहीं लाते पिटीशन?
दुर्घटना के बाद घायलों को बिना इलाज भगा देनेवाले डाक्टरों के खिलाफ क्यों नहीं
होती पिटीशन?
राजस्थान में डॉक्टर ने मरीज को अस्पताल में सबके साबके मारा, उसके खिलाफ
आई एम् ए ने क्या किया?
यही बदतमीजी वकील भी कर रहे हैं। एक वकील दूसरे वकील को मारे और पूरे देश में हड़ताल कर दो। न्याय की आस में घर, जमीन बेच चुके मुवक्किदिलाने ल की न्याय की चिंता नहीं है किसी वकील को।
आम आदमी को ब्लैक मेल कर रहे पत्रकारों के साथ पूरा मीडिया जुट जाता है।
कैसा लोकतंत्र बना रहे हैं हम। निर्बल और गरीब की जान बचानेवाला, न्याय
दिलाने वाला, उसकी आवाज उठाने वाला, उसके जीवन भर की कमाई देने का सपना दिखानेवाला सब संगठन बनाकर खड़े हैं। उन्हें समर्थन को संरक्षण चाहिए, और ये सब असहायकी जान लेते रहें उनके खिलाफ कुछ नहीं हो रहा।
शर्मनाक।
२०-६-२०१९
***
संस्मरण:
अपने आपमें छंद काव्य सलिल जी
- आभा सक्सेना, देहरादून
*
संजीव वर्मा सलिल एक ऐसा नाम जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है |उनकी प्रशंसा करना मतलब सूर्य को दीपक दिखाने जैसा होगा |उनसे मेरा परिचय मुख पोथी पर सन २०१४-१५ में हुआ |उसके बाद तो उनसे दूरभाष पर वार्तालाप का सिलसिला चल रहा है| सलिल जी स्वयं में ही एक पूरा छंद काव्य हैं| उन्होने किस विधा में नहीं लिखा हर विधा के वे ज्ञानी पंडित हैं उन के व्यक्तित्व में उनकी कवियित्री बुआ महादेवी वर्मा जी की साफ झलक दिखाई देती है |
सन २०१४, उस समय मैं नवगीत लिखने का प्रयास कर रही थी उस समय मुझे उन्हों ने ही नवगीत विधा की बारीकियाँ सिखाईं। मेरा नव गीत उनके कुछ सुझावों के बाद -
नव गीत
कुछ तो
मुझसे बातें कर लो
अलस्सुबह जा
सांझ ढले
घर को आते हो
क्या जाने
किन हालातों से
टकराते हो
प्रियतम मेरे!
सारे दिन मैं
करूँ प्रतीक्षा-
मुझ को
निज बाँहों में भर लो
थका-चुका सा
तुम्हें देख
कैसे मुँह खोलूँ
बैठ तुम्हारे निकट
पीर क्या
हिचक टटोलूँ
श्लथ बाँहों में
गिर सोते
शिशु से भाते हो
मन इनकी
सब पीड़ा हर लो
.....आभा
आजकल वे सवैया छंद पर कार्य कर रहे हैं उनका कहना है कि
“सवैया आधुनिक हिंदी की शब्दावली के लिए पूरी तरह उपयुक्त छंद' है। यह भ्रांति है कि सरस सवैये केवल लोकभाषाओं लिखे जा सकते हैं। सत्य यह है कि सवैया वाचिक परंपरा से विकसित छंद है। लोकगायक प्रायः अशिक्षित या अल्प शिक्षित थे। उन्होंने लोकभाषा में सवैया रचे और उन्हें पढ़कर उन्हीं की शब्दावली हमें सहज लगती है। मैं सवैया कोष पर काम कर रहा हूँ। १६० प्रकार के सवैये बना चुका हूँ। सब आधुनिक हिंदी में हैं जिनमें वर्णिक व मात्रिक गणना व यति समान हैं। के सवैये बना चुका हूँ। सब आधुनिक हिंदी में हैं जिनमें वर्णिक व मात्रिक गणना व यति समान हैं”। वे कार्यशालाओं में निरंतर नए प्रयोग कर जिज्ञासुओं को छंदों की बारीकियाँ बताते हैं।
एक कथ्य चार छंद:
*
जनक छंद
फूल खिल रहे भले ही
गर्मी से पंजा लड़ा
पत्ते मुरझा रहे हैं।
*
माहिया
चाहे खिल फूल रहे
गर्मी से हारे
पत्ते कुम्हलाय हरे।
*
दोहा
फूल भले ही खिल रहे, गर्मी में भी मौन।
पत्ते मुरझा रहे हैं, राहत दे कब-कौन।।
*
सोरठा
गर्मी में रह मौन, फूल भले ही खिल रहे।
राहत दे कब-कौन, पत्ते मुरझा रहे हैं।।
रोला
गर्मी में रह मौन, फूल खिल रहे भले ही।
राहत कैसे मिलेगी, पत्ते मुरझा रहे हैं।।
*
सलिल जी बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। उनको देख कर लगता है कि उनका साहित्य के प्रति विशेष रूप से लगाव है इसीलिए उन्होंने अपना जीवन साहित्य के प्रति समर्पित कर दिया है |दोहा लिखना भी मैंने उनसे ही सीखा है। आजकल अपरिपक्व कवि अधकचरी रचनाओं पर भी कॉपी राइट की बात करते और चोरी होनी की आशंका जताकर अहं की पुष्टि करते रहते हैं जबकि सलिल जी अपनी श्रेष्ठ रचनाओं को निरंतर बिना किसी भय या दावेदारी एक नित्य प्रति परोसते रहते हैं। उनकी उदारता यह कि मुझे प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने एक दोहा मेरे नाम का प्रयोग करते हुए लिखा और कुझे बहुत पसंद आने पर मेरे नाम ही कर दिया।
आभामय दोहे नवल, आ भा करते बात।
आभा पा आभित सलिल, पंक्ति पंक्ति जज़्बात।।
इसे कहते हैं बड़प्पन | उनकी प्रतिभा दूर दूर तक देदीप्यमान है और रहेगी। बेहद आभार आपका।
ऐसे व्यक्तित्व को मेरा कोटिशः नमन भविष्य में उनकी साहित्यिक प्रगति और अच्छे स्वास्थ्य एवं शतायु की कामना करते हुए .....
आभा सक्सेना 'दूनवी'
२०-६-२०१९, देहरादून
***
ॐ सरस्वत्यै नम: ॐ
शारद वंदना
लाक्षणिक जातीय पद्मावती/कमलावती छंद
*
शारद छवि प्यारी, सबसे न्यारी, वेद-पुराण सुयश गाएँ।
कर लिए सुमिरनी, नाद जननि जी, जप ऋषि सुर नर तर जाएँ।।
माँ मोरवाहिनी!, राग-रागिनी नाद अनाहद गुंजाएँ।
सुर सरगमदात्री, छंद विधात्री, चरण - शरण दे मुसकाएँ।।
हे अक्षरमाता! शब्द प्रदाता! पटल लेखनी लिपि वासी।
अंजन जल स्याही, वाक् प्रवाही, रस-धुन-लय चारण दासी।।
हो ॐ व्योम माँ, श्वास-सोम माँ, जिह्वा पर आसीन रहें।
नित नेह नर्मदा, कहे शुभ सदा, सलिल लहर सम सदा बहें।।
कवि काव्य कामिनी, छंद दामिनी, भजन-कीर्तन यश गाए।
कर दया निहारो, माँ उपकारो, कवि कुल सारा तर जाए।।
*
२०-६-२०२०
***
व्यंग्य गीत:

अभिनंदन
लो
*
युग-कवयित्री!
अभिनंदन
लो....
*
सब जग अपना, कुछ न पराया
शुभ सिद्धांत तुम्हें यह भाया.
गैर नहीं कुछ भी है जग में-
'विश्व एक' अपना सरमाया.
जहाँ मिले झट झपट वहीं से
अपने माथे यश-चंदन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
मेरा-तेरा मिथ्या माया
दास कबीरा ने बतलाया.
भुला परायेपन को तुमने
गैर लिखे को कंठ बसाया.
पर उपकारी अन्य न तुमसा
जहाँ रुचे कविता कुंदन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
हिमगिरी-जय सा किया यत्न है
तुम सी प्रतिभा काव्य रत्न है.
चोरी-डाका-लूट कहे जग
निशा तस्करी मुदित-मग्न है.
अग्र वाल पर रचना मेरी
तेरी हुई, महान लग्न है.
तुमने कवि को धन्य किया है
खुद का खुद कर मूल्यांकन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
कवि का क्या? 'बेचैन' बहुत वह
तुमने चैन गले में धारी.
'कुँवर' पंक्ति में खड़ा रहे पर
हो न सके सत्ता अधिकारी.
करी कृपा उसकी रचना ले
नभ-वाणी पर पढ़कर धन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
तुम जग-जननी, कविता तनया
जब जी चाहा कर ली मृगया.
किसकी है औकात रोक ले-
हो स्वतंत्र तुम सचमुच अभया.
दुस्साहस प्रति जग नतमस्तक
'छद्म-रत्न' हो, अलंकरण लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
***
टीप: श्रेष्ठ कवि की रचना को अपनी बताकर २३-५-२०१८ को प्रात: ६.४० बजे काव्य धारा कार्यक्रम में आकाशवाणी पर प्रस्तुत कर धनार्जन का अद्भुत पराक्रम करने के उपलक्ष्य में यह रचना समर्पित उसे ही जो इसका सुपात्र है।
***
स्मृति गीत:
*
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे. यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-हम अपने ही हाथ मलेंगे.
पर मिथ्या सपने भाते हैं.हर दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड, डांट, झिडकी, समझाइश.कर न सकूँ इनकी पैमाइश.
लेपहचान गैर-अपनों को-कर न दर्द की कभी नुमाइश.
अबन गोद में बिठलाते हैं.हर दिन पिता याद आते हैं...
*
अक्षर-शब्द सिखाये तुमने.नित घर-घाट दिखाए तुमने.
जब-जब मन कोशिश कर हारा-फल साफल्य चखाए तुमने.
पग थमते, कर जुड़ जाते हैं हर दिन पिता याद आते हैं...
२०-६-२०१०
***
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लघु कथा
राष्ट्रीय एकता
*
'माँ! दो भारतीयों के तीन मत क्यों होते हैं?'
''क्यों क्या हुआ?''
'संसद और विधायिकाओं में जितने जन प्रतिनिधि होते हैं उनसे अधिक मत व्यक्त किये जाते हैं.'
''बेटा! वे अलग-अलग दलों के होते हैं न.''
'अच्छा, फिर दूरदर्शनी परिचर्चाओं में किसी बात पर सहमति क्यों नहीं बनती?'
''वहाँ बैठे वक्ता अलग-अलग विचारधाराओं के होते हैं न?''
'वे किसी और बात पर नहीं तो असहमत होने के लिये ही सहमत हो जाएँ।
''ऐसा नहीं है कि भारतीय कभी सहमत ही नहीं होते।''
'मुझे तो भारतीय कभी सहमत होते नहीं दीखते। भाषा, भूषा, धर्म, प्रांत, दल, नीति, कर, शिक्षा यहाँ तक कि पानी पर भी विवाद करते हैं।'
''लेकिन जन प्रतिनिधियों की भत्ता वृद्धि, अधिकारियों-कर्मचारियों के वेतन बढ़ाने, व्यापारियों के कर घटाने, विद्यार्थियों के कक्षा से भागने, पंडितों के चढोत्री माँगने, समाचारों को सनसनीखेज बनाकर दिखाने, नृत्य के नाम पर काम से काम कपड़ों में फूहड़ उछल-कूद दिखाने और कमजोरों के शोषण पर कोई मतभेद देखा तुमने? भारतीय पक्के राष्ट्रवादी और आस्तिक हैं, अन्नदेवता के सच्चे पुजारी, छप्पन भोग की परंपरा का पूरी ईमानदारी से पालन करते हैं। मद्रास का इडली-डोसा, पंजाब का छोला-भटूरा, गुजरात का पोहा, बंगाल का रसगुल्ला और मध्यप्रदेश की जलेबी खिलाकर देखो, पूरा देश एक नज़र आयेगा।''
और बेटा निरुत्तर हो गया...
*
***
पैरोडी
*
प्रभु जी! हम जनता, तुम नेता
हम हारे, तुम भए विजेता।।
प्रभु जी! सत्ता तुमरी चेरी
हमें यातना-पीर घनेरी ।।
प्रभु जी! तुम घपला-घोटाला
हमखों मुस्किल भयो निवाला।।
प्रभु जी! तुम छत्तीसी छाती
तुम दुलहा, हम महज घराती।।
प्रभु जी! तुम जुमला हम ताली
भरी तिजोरी, जेबें खाली।।
प्रभु जी! हाथी, हँसिया, पंजा
कंघी बाँटें, कर खें गंजा।।
प्रभु जी! भोग और हम अनशन
लेंय खनाखन, देंय दनादन।।
प्रभु जी! मधुवन, हम तरु सूखा
तुम हलुआ, हम रोटा रूखा।।
प्रभु जी! वक्ता, हम हैं श्रोता
कटे सुपारी, काट सरोता।।
(रैदास से क्षमा प्रार्थना सहित)
***
२०-११-२०१५
चित्रकूट एक्सप्रेस, उन्नाव-कानपूर

***
दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत
*
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
***
२०-६-२०१६
lnct jabalpur
***
विमर्श
शिवलिंग और शालिग्राम
*
लोकोक्ति है 'कंकर मन शंकर' तथा 'कण-कण में भगवान'।
सनातन धर्मानुसार श्रुति के जन्मदाता ब्रह्मा, पालक विष्णु और विनाशक महेश हैं।
अपने भाव-गुणों के द्वारा त्रिदेव स्थूल रूप में प्रकृति में अन्तर्निहित हैं। यह भी की हर जीव में त्रिदेवों की उपस्थिति त्रिगुण (सत,रज,तम) के रूप में हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद अध्याय ४ मंत्र ५ में ऋषि कहते हैं-
एक जन्म देता अनेक को
रक्त, श्वेत अरु श्याम त्रैगुणी।
अग्यासनी, आसक्त भोगता,
ग्यानी प्रकृति को तज देता।
त्रिदेव वास्तव में निराकार हैं कइँती जनसामान्य को उनकी प्रतीति करने के उद्देश्य से उन्हें साकार रूप में भगवान ब्रह्मा को शंख (सरस्वती ध्वनि रूप में), भगवान विष्णु को शालिग्राम () तथा शिव को शिवलिंग और जिलहरी (पार्वती) रूप में पूजा गया है। सूर्य व चंद्र के समान देवस्वरूप शंख के मध्य में वरुण, पृष्ठ में ब्रह्मा तथा अग्र में गंगा और सरस्वती नदियों का वास है।
मूलत: सनातन धर्म में मूर्ति-पूजा मान्य न होने पर भी शालिग्राम और शिवलिंग को विग्रह रूप में मान्य हैं।
शालिग्राम का मंदिर :
शालिग्राम का एकमात्र प्रसिद्ध मुक्तिनाथ मंदिर नेपाल में है। यह वैष्णव संप्रदाय के प्रमुख मंदिरों में से एक है। दुर्गम मुक्तिनाथ की की कृपा से सब कष्टों से मुक्ति मिल जाती है। काठमांडु से मुक्तिनाथ की यात्रा के लिए सड़क या हवाई मार्ग से पोखरा जाना होता है। पोखरा से जोमसोम जाकर २०० किलोमीटर दूर मुक्तिनाथ जाने के लिए बस, हेलिकॉप्टर या फ्लाइट ले सकते हैं।
शालिग्राम
दुर्लभ शालिग्राम नेपाल के मुक्तिनाथ, काली गण्डकी नदी के तट पर पाया जाता है। काले और भूरे शालिग्राम के अलावा सफेद, नीले और ज्योतियुक्त शालिग्राम दुर्लभ हैं। पूर्ण शालिग्राम में भगवाण विष्णु के चक्र की आकृति अंकित होती है।
शालिग्राम के प्रकार : विष्णु के अवतारों के अनुसार शालिग्राम पाया जाता है। गोल शालिग्राम विष्णु का गोपाल रूप है। मछली के आकार का शालिग्राम श्री विष्णु के मत्स्य अवतार का प्रतीक है। कछुए के आकार का शालिग्राम भगवान के कच्छप (कूर्म) अवतार का प्रतीक है। इसके अलावा शालिग्राम पर उभरे चक्र और रेखाएं विष्णु के अन्य अवतारों और श्रीकृष्ण के कुल के लोगों को इंगित करती हैं। लगभग ३३ प्रकार के शालिग्राम होते हैं जिनमें से २४ प्रकार विष्णु के २४ अवतारों तथा वर्ष के २४ एकादशी व्रतों से संबंधित हैं।
शालिग्राम की पूजा :
* घर में सिर्फ एक ही शालिग्राम की पूजा करना चाहिए।
* विष्णु की मूर्ति से कहीं ज्यादा उत्तम है शालिग्राम की पूजा करना।
* शालिग्राम पर चंदन लगाकर उसके ऊपर तुलसी का एक पत्ता रखें।
* प्रतिदिन शालिग्राम को पंचामृत से स्नान कराएँ।
* जहाँ शालिग्राम-पूजन होता है, वहाँ लक्ष्मी का सदैव वास रहता है।
* नियमितशालिग्राम पूजन से अगले-पिछले सभी जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
* शालिग्राम सात्विकता के प्रतीक हैं। उनके पूजन में आचार-विचार की शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है।
शिवलिंग :
शिवलिंग
भगवान शिव का जीवंत विग्रह तथा जलहरी को माँ पार्वती हैं। 'ॐ नम: शिवाय' पंचाक्षरी मंत्र का जप करते हुए शिवलिंग का पूजन या अभिषेक कर महामृत्युंजय मंत्र और शिवस्त्रोत का पाठ करें। रुद्राभिषेक किसी पुजारी से सम्पन्न कराएँ।
शिवलिंग पूजा के नियम :
* शिवलिंग को पंचांमृत से स्नानादि कराकर उन पर भस्म से तीन आड़ी लकीरों वाला तिलक लगाएँ।
* शिवलिंग पर हल्दी न चढ़ाएँ, लेकिन जलाधारी पर हल्दी चढ़ाई जा सकती है।
* शिवलिंग पर दूध, जल, काले तिल चढ़ाने के बाद बेलपत्र चढ़ाएँ।
* केवड़ा तथा चम्पा के फूल न चढ़ाएँ। गुलाब और गेंदा किसी पुजारी से पूछकर ही चढ़ाएँ।
* कनेर, धतूरे, आक, चमेली, जूही के फूल चढ़ा सकते हैं।
* शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ प्रसाद ग्रहण नहीं किया जाता, सामने रखा गया प्रसाद अवश्य ले सकते हैं।
* शिवलिंग नहीं शिवमंदिर की आधी परिक्रमा ही की जाती है।
* शिवलिंग के पूजन से पहले पार्वती का पूजन करना जरूरी है
शिवलिंग का अर्थ : शिवलिंग को नाद और बिंदु का प्रतीक माना जाता है। पुराणों में इसे ज्योर्तिबिंद कहा गया है। पुराणों में शिवलिंग को कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है जैसे- प्रकाश स्तंभ लिंग, अग्नि स्तंभ लिंग, ऊर्जा स्तंभ लिंग, ब्रह्मांडीय स्तंभ लिंग आदि।
शिव का अर्थ 'परम कल्याणकारी शुभ' और 'लिंग' का अर्थ है- 'सृजन ज्योति'। वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आता है। यह सूक्ष्म शरीर १७ तत्वों से बना है - मन, बुद्धि, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच वायु। भ्रकुटी के बीच स्थित हमारी आत्मा या कहें कि हम स्वयं बिंदु रूप हैं।
ब्रह्माण्ड का प्रतीक : शिवलिंग का आकार-प्रकार ब्रह्मांड में घूम रही हमारी आकाशगंगा की तरह है। यह शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड में घूम रहे पिंडों का प्रतीक है। वेदानुसार ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।
अरुणाचल है प्रमुख शिवलिंगी स्थान : भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता को लेकर हुए विवाद को सुलझाने के लिए एक दिव्य लिंग (ज्योति) प्रकट किया था। इस लिंग का आदि और अंत ढूंढते हुए ब्रह्मा और विष्णु को शिव के परब्रह्म स्वरूप का ज्ञान हुआ। इसी समय से शिव के परब्रह्म मानते हुए उनके प्रतीक रूप में लिंग की पूजा आरंभ हुई। यह घटना अरुणाचल में घटित हुई थी।
आकाशीय पिंड : ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार विक्रम संवत के कुछ सहस्त्राब्दि पूर्व संपूर्ण धरती पर उल्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदिमानव को यह रुद्र (शिव) का आविर्भाव दिखा। जहाँ-जहाँ ये पिंड गिरे, वहाँ-वहाँ इन पवित्र पिंडों की सुरक्षा के लिए मंदिर बना दिए गए। इस तरह धरती पर हजारों शिव मंदिरों का निर्माण हो गया। उनमें से प्रमुख थे १०८ ज्योतिर्लिंग।
संग-ए-असवद : शिव पुराण के अनुसार उस समय आकाश से ज्योति पिंड धरती पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेक उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। कहते हैं कि मक्का का संग-ए-असवद (मक्केश्वर महादेव) भी आकाश से गिरा था।
***
स्मृति गीत:
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे.
यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-
हम अपने ही हाथ मलेंगे.
पर मिथ्या सपने भाते हैं.हर
दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड़, डाँट, झिड़की, समझाइश.
कर न सकूँ इनकी पैमाइश.
ले पहचान गैर-अपनों को-
कर न दर्द की कभी नुमाइश.
अब न गोद में बिठलाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
अक्षर-शब्द सिखाये तुमने.
नित घर-घाट दिखाए तुमने.
जब-जब मन कोशिश कर हारा-
फल साफल्य चखाए तुमने.
पग थमते, कर जुड़ जाते हैं
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
२०-६-२०१०