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मंगलवार, 7 जनवरी 2014

एक कविता:
चीता
संजीव
*
कौन कहता है
कि चीता मर गया है?
हिंस्र वृत्ति
जहाँ देखो बढ़ रही है.
धूर्तता
किस्से नए नित गढ़ रही है.
शक्ति के नाखून पैने,
चोट असहायों पर करते,
स्वाद लेकर रक्त पीते,
मारकर औरों को जीते।

और तुम?
और तुम कहते हो
चीता मर गया है.
नहीं,
वह तो आदमी की नस्ल में
घर कर गया है.
कौन कहता है कि
चीता मर गया है?
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