दोहा सलिला:
संजीव
*
राधा मीरा द्रौपदी, किसको कितना नेह
कृष्ण-सखा से किस तरह, जाने बिन संदेह
*
किसका है कुल श्रेष्ठ- यह, सका तभी जग जान?
जब तम हर लायी निशा , निर्मल नवल विहान।
*
धूप-छाँव जब जो मिल, किया विहँस स्वीकार
अधर मुस्कुराते रहे, कह प्रभु को आभार
*
तन-मन की भाषा नहीं, है दिमाग के पास
दिल की सुनिए तो नहीं, होंगे आप उदास.
*
खाली होता उदर तो, खुल जाती है आँख
उदर भरे तो पखेरू, क़ब फ़ैलाते पाँख
*
अधर बन्द कर मौन हो, करिए कविता-पाठ
मन की मन से मन कहे, बात- अजब हो ठाठ
*
संजीव
*
राधा मीरा द्रौपदी, किसको कितना नेह
कृष्ण-सखा से किस तरह, जाने बिन संदेह
*
किसका है कुल श्रेष्ठ- यह, सका तभी जग जान?
जब तम हर लायी निशा , निर्मल नवल विहान।
*
धूप-छाँव जब जो मिल, किया विहँस स्वीकार
अधर मुस्कुराते रहे, कह प्रभु को आभार
*
तन-मन की भाषा नहीं, है दिमाग के पास
दिल की सुनिए तो नहीं, होंगे आप उदास.
*
खाली होता उदर तो, खुल जाती है आँख
उदर भरे तो पखेरू, क़ब फ़ैलाते पाँख
*
अधर बन्द कर मौन हो, करिए कविता-पाठ
मन की मन से मन कहे, बात- अजब हो ठाठ
*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें