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शनिवार, 26 अप्रैल 2014

doha salila: sanjiv

दोहा सलिला:
संजीव
*
राधा मीरा द्रौपदी, किसको कितना नेह
कृष्ण-सखा से किस तरह, जाने बिन संदेह
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किसका है कुल श्रेष्ठ- यह, सका तभी जग जान?
जब तम हर लायी निशा , निर्मल नवल विहान।
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धूप-छाँव जब जो मिल, किया विहँस स्वीकार
अधर मुस्कुराते रहे, कह प्रभु को आभार
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तन-मन की भाषा नहीं, है दिमाग के पास
दिल की सुनिए तो नहीं, होंगे आप उदास.
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खाली होता उदर तो, खुल जाती है आँख
उदर भरे तो पखेरू, क़ब फ़ैलाते पाँख
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अधर बन्द कर मौन हो, करिए कविता-पाठ
मन की मन से मन कहे, बात- अजब हो ठाठ
*

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