गीत:
संजीव
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आन के स्तन न होते, किस तरह तन पुष्ट होता
संजीव
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आन के स्तन न होते, किस तरह तन पुष्ट होता
जान कैसे जान पाती, मान कब संतुष्ट होता?
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पय रहे पी निरन्तर विष को उगलते हम न थकते
लक्ष्य भूले पग भटकते थक गये फ़िर भी न थकते
मौन तकते हैं गगन को कहीँ क़ोई पथ दिखा दे
काश! अपनापन न अपनोँ से कभी भी रुष्ट होता
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पय पिया संग-संग अचेतन को मिली थी चेतना भी
पयस्वनि ने कब बतायी उसे कैसी वेदना थी?
प्यार संग तकरार या इंकार को स्वीकार करना
काश! हम भी सीख पाते तो मनस परिपुष्ट होता
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पय पिला पाला न लेकिन मोल माँगा कभी जिसने
वंदनीया है वही, हो उऋण उससे कोई कैसे?
आन भी वह, मान भी वह, जान भी वह, प्राण भी वह
आन भी वह, मान भी वह, जान भी वह, प्राण भी वह
खान ममता की न होती, दान कैसे तुष्ट होता?
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Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
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